नवगीत
कभी-कभी खत लिख देता हूँ
*
भूली-बिसरी उन यादों को
जो बचपन में भटक गई हैं
और पड़ीं हैं अभी उपेक्षित
कभी-कभी खत लिख देता हूँ
*
हरियाली के नये शहर में
जहाँ विकास जमाया डेरा
जहाँ भूख की लँगड़ी-बिछिया
धूप-छाँह का धुआँ घनेरा
जीवन के असफल पाँवों को
जो ऋतुओं से जूझ रहे हैं
और अभी तक नहीं समीक्षित
कभी-कभी खत लिख देता हूँ
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रहती है उत्सुकता उत्सुक
उम्मीदों के नये शहर में
भोर लिए सोना उठता है
जागरूक हर जगे पहर में
किये हुए अनगिन वादों को
जो सपनों में आ जाते हैं
और हुए हैं अभी न दीक्षित
कभी-कभी खत लिख देता हूँ
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खर-पतवारों की मड़ई को
भीगी पड़ीं लकड़ियों के घर
बालू की रेती पर लेटीं
पसरी हुई ककड़ियों के दर
खपरैली टूटी ओरी को
जो भादों में रोज टपकती
और हुई है नहीं प्रशिक्षित
कभी-कभी खत लिख देता हूँ
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शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ