नवगीत
राजनीति की चाय
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उड़न खटोले
पर बैठी है
राजनीति की चाय
शुभचिंतक की
कुशल-क्षेम की
फूट गई है आँख
अफवाहों की
पूँजी की बस
फुदक रही है पाँख
घपलेबाजी
जुटा रही है
राजनीति की राय
फिर चुनाव की
बैसाखी पर
हर वादा आरूढ़
कुछ थाली के
बैंगन भी हैं
कुछ चमचे हैं गूढ़
भटकी मुद्दों
की मथुरा में
राजनीति की गाय
गांधी टोपी
पहन लँगोटी
टहल रही है गाँव
आसमान पर
जमे हुये हैं
उसके सक्षम पाँव
मत का बटुआ
ढूँढ़ रही है
राजनीति की आय
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ