नवगीत
आग अंदर थी
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पिता की लत थी
कि वह बीड़ी जलाते थे
आग अंदर थी
जिसे अक्सर बुझाते थे
नहीं छूते थे
कभी सिगरेट की डिबिया
ली नहीं कोई
दवाई की कभी टिकिया
नीम की पतई
व तुलसी-दल चबाते थे
छी किये खैनी
नहीं था पान से नाता
बंदगी प्यारी
रहा बस काम से नाता
सोरठी जब तब
अलावों पर सुनाते थे
खूब खाते थे
टिकोरा की बनी चटनी
भजन गाते थे
लगी हो खेत में कटनी
बीच में रुक-रुक
बुझौवल भी बुझाते थे
पिता की लत थी
कि वह बीड़ी जलाते थे
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ