नवगीत
बुरे दिन !
किसकी छत के
नीचे गुजरे
कल की लम्बी रात
बुरे दिन !
पूँजीवादी
प्रधी क्रियायें
वैश्वीकरण-प्रभाव
कब सहलाये
मजदूरी के
पग के छाले-घाव
महल उठाएँ
जो झोंपड़ियाँ
बनी न उनकी बात
बुरे दिन !
उड़ते पंखों
ने कब जाना
है अभाव क्या चीज
कार्तिक ने भी
कभी न छिटके
सरसों के कुछ बीज
फुटपाथों के
घर में तनती
सुख की कहाँ कनात
बुरे दिन !
पगडंडी तक
कब पहुँचे हैं
राजकोष के ठाट
चली बिछाने
लूट सड़क पर
कब सुविधा की खाट
वादों ही की
गरम जलेबी
बाँट रही औकात
बुरे दिन !
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ