Narakasur Goa
नरकासुर
आज सुबह मैं हमेशा की तरह ही बेटी के साथ सैर पर निकली थी। “छोटी दीपावली” का दिन था। “नरक चतुर्दशी”। घर से कुछ दूर जाते ही देखा तो ‘नरकासुर’ का विशाल पुतला लगा हुआ था। उस समय मेरे पास फ़ोन नहीं था अन्यथा मैं तुरंत फ़ोटो खींच लेती। मैं वहां से आगे चली गई। कुछ दूर जानें के बाद मेरी बेटी मम्मा ” ’नरकासुर’ के हाथ में क्या था वो?? यही प्रश्न बार बार मुझसे पूंछ रही थी। मैंने ‘नरकासुर’ को पूरी तरह से तबतक देखा नहीं था। इसका अब क्या ही जबाव दूं???
इसीलिए उत्तर देने में मैं तब असमर्थ थी। जब हम उसी मार्ग से वापस लौट आए तब मेरी बेटी डर रही थी। लौटने पर मैंने फ़िर से ’नरकासुर’ को देखा। इस वार मैंने उसके दोनों हाथों में देखा। “आओ मेरे पास डरो नहीं और मैंने बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया। मैंने मन में कहा कि यह तो ……..,”यह तो राक्षस का कटा हुआ सर है इसके हाथ में। और” दूसरे हाथ में शस्त्र है। ओह! इसीलिए नव्या मुझसे बार बार एक ही सवाल कर रही थी। मम्मा ‘नरकासुर’ के हाथ में क्या था वो?????
मिस्टर से मैंने बहुत बार ’नरकासुर’ के बारे में सुना तो था लेकिन कभी उन बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था। अब तक तो बिल्कुल भी नहीं। उन्होंने मुझे बताया था कि ’छोटी दिवाली’ के दिन यहां जगह–जगह पर हर गली – मोहल्ले में ‘नरकासुर’ का पुतला लगाते हैं। और अर्धरात्रि होने के बाद जला देते हैं। यह एक त्यौहार की तरह होता है। ”बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक होता है। अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है।” गोवा वासियों के लिए आज का दिन ख़ास है। यह किसी ‘त्यौहार’ से कम नहीं है।
इसकी तैयारी यहां के युवा कई महीनों पहले से करते हैं। ‘पुतला’ बनाने के लिए कागज़, गोंद, फटे – पुराने कपड़े, लोहे की रॉड लगाते हैं। लोहे की रॉड से शरीर का ढांचा बनाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे हमारा शरीर कंकाल तंत्र के बिना अधूरा है। सब अपने अनुसार नरकासुर का पुतला बनाते हैं। फ़िर पेंट करते हैं। इनमें आपस में ‘प्रतियोगिता’ रहती है। कुछ लोग तो अपनी कार और बाइक में भी लगा लेते हैं और बाद में जला देते हैं। इस दिन सारे युवा संगठित होते हैं। रात्रि में लोग अपने घरों से बाहर निकलते हैं। परिवार के सभी लोग साथ रहते हैं। लड़कियां भी निडर होकर घूमती हैं।
’गणेश उत्सव’ के बाद यह दूसरा मौका होता है। जब सभी लोग यहां साथ आते हैं। ’गणेश उत्सव‘ की बात याद आते ही “हां मैं भी तो थी कितनी भीड़ थी। पहली बार उस विशाल भीड़ का हिस्सा थी मैं। वैसे तो मुझे भीड़ में जाना पसंद नहीं था लेकिन मैं उस दिन कितनी खुश थी। और मैंने यह कहा भी था कि” कभी कभी भीड़ का हिस्सा होना भी उचित है।” ओह! कहां खो गई मैं भी,,,,, रातभर यहां सब घूमते हैं। यह उसी तरह है जैसे हमारे यहां दशहरे के दिन ‘रावण के पुतले’ को दहन किया जाता है। ’अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक स्वरूप।’
मैं फ़ोन लेकर नहीं गई थी। नहीं तो अभी मेरे पास फोटोज़ होते। इसीलिए मैंने मिस्टर के ऑफिस जाने के समय कुछ फोटोज़ लेने के लिए कहा था। लेकिन वो भूल गए थे। मुझे भी याद नहीं था। मैं अपने काम में व्यस्त हो चुकी थी। मुझे इस विषय में सुध न रही। शाम को दूसरी बार फोटो में नरकासुर के पुतले को देखने के बाद मेरी जिज्ञासा बढ़ने लगी थी। मैं इस विषय पर जानकारी एकत्र करने लगी। मिस्टर ने ” मुझे फोटोज़ दिखाते हुए कहा “इस फ़ोटो में पापा नरकासुर के साथ बेबी नरकासुर भी है देखो,,,, और हंसने लगे।”
मिस्टर ने मुझसे कहा था कि हम रात्रि में ‘नरकासुर’ देखने चलेंगे। लेकिन मैंने तब मना कर दिया था। “नहीं मैं नहीं जाऊंगी, मेरी नींद ख़राब हो जाएगी।” लेकिन मेरे मन में द्वंद था जाऊं या नहीं। फ़िर ख्याल आया कि मुझे जाना चाहिए। ऐसे मौके बार बार नहीं मिलते हैं। क्या पता अगली बार हम कहां होंगें??? यदि दूसरी बार मौका मिले भी तो मैं न जा पाऊं तो। पछताने से अच्छा है कि अभी चली जाती हूं। मन की शांति के लिए। और वैसे भी ‘दिवाली’ की पूरे तेईस दिन की छुट्टी मिली हुई है। चिंता की कोई बात भी नहीं है। मुझे जाना ही चाहिए।
पहले तो मैंने जानें से मना कर दिया था। लेकिन बाद में हम सब साथ में ‘नरकासुर’ को देखने के लिए निकल गए। सबसे पहले हम वहीं घर के पास वाले मंदिर पहुंचे। वहां अब ख़ूब सजावट थी। लाइट्स और डीजे। गाने भी नए जमाने के लगे हुए थे। गाना “आज की रात”….हर जगह हर गली मोहल्ले में सबने अपने सामर्थ्य अनुसार नरकासुर के पुतले को लगाया हुआ था। छोटे से लेकर छोटा और बड़े से लेकर विशाल ’नरकासुर’ भरे पड़े थे। कई जगह विशाल ’नरकासुर’ के सामने भगवान “श्री कृष्ण” युद्ध करते हुए भव्य रूप में प्रदर्शित किए गए थे। इस दिन यहां भगवान ‘श्री कृष्ण’ की पूजा होती है।
हर जगह बड़े बड़े डी जे लगे हुए थे। आंखें चौंधियां जाए देखकर इतना तीव्र प्रकाश आंखों पर पड़ रहा था। कानों में दर्द हो जाए इतना तेज़ डीजे बज रहा था। हां मेरा तो यही अनुभव रहा। कई जगह पर मुझे अपने दोनों कानों को बंद करना पड़ा। प्रकाश की चमक अधिक थी। जिसकी वजह से नजरें उठ नहीं रही थी। ऊपर से मैंने अपना चश्मा भी नहीं पहना था। न ही मैं लेकर गई थी। तीव्र रंग बिरंगे प्रकाश की किरणें और तेज़ डीजे आयोजन को भव्य बना रहे थे। सभी युवा एक साथ थे। सबके अपने ग्रुप बने हुए थे। उन युवाओं के समूह के नाम भी थे। देशी बॉयज बग़ैरा ( काल्पनिक नाम समझने हेतु) लग ही नहीं रहा था कि हम रात्रि में घर से बाहर निकले थे। सब की तरह हम भी पेट्रोल पंप पहुंचे।
पेट्रोल पंप पर भीड़ थी। सब गाड़ी के टैंक फूल करा रहे थे। ग्यारह बजे के बाद पेट्रोल पंप बंद हो जाते हैं। या शायद उससे भी पहले। आज सभी रात भर घूमने वाले हैं। वैसे तो यहां ठंड नहीं पड़ती है। लेकिन रात्रि के समय थोड़ा सर्दी अनुभव होती है। लोगों ने बच्चों को टोपा और जैकेट यहां तक कि कुछ लोगों ने ख़ुद भी जैकेट पहना हुआ था। तो कुछ लोग गाड़ी रोककर पहन रहे थे। हम तो ऐसे ही निकल गए थे। हम जल्दी निकल गए थे। ग्यारह बजे तक हम वापस भी आ गए । हमें जानें आने में अधिक समस्या नहीं हुई थी। क्योंकि यहां ज्यादातर लोग इसी समय निकलते हैं। हमारे घर के पास पूरा रोड जाम था। बहुत भीड़ थी। हमने कहा अच्छा हुआ कि हम घूमकर आ भी गए। तब भीड़ भी नहीं थी लेकिन अब देखो बाहर कितनी भीड़ है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार ‘नरकासुर’ ’भगवान विष्णु’ और ’भूदेवी’की संतान था। प्रागज्योतिषपुर नगर का राजा नरकासुर नामक दैत्य था।उसके माता पिता ने ही भगवान ’श्री कृष्ण’ और ’सत्यभामा’ के रूप में उसका वध किया था। उसने अपनी दुष्ट आसुरी शक्तियों से वायु, अग्नि, अरुण, वरुण आदि देवताओं और स्त्रियों के साथ अत्याचार किया था। नरकासुर ईश्वरीय था। हमेशा से दुष्ट नहीं था। लेकिन कहते हैं न कि संगति का असर अच्छे अच्छों को बिगाड़ देता है। नरकासुर के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था। बाणासुर की संगति में यह दुष्ट हो गया था। नरकासुर ने सोलह हज़ार कन्याओं को बंदी बना लिया था। तब एक ऋषि के श्राप वश उसका वध भगवान ‘श्री कृष्ण’ और देवी ’सत्यभामा’ के हाथों लिखा था। भगवान ’श्री कृष्ण’ ने उसका संहार किया और उसकी कैद से सोलह हज़ार स्त्रियों को छुड़ाया था।
जिस तरह ’रावण के पुतले‘ का दहन किया जाता है। ठीक उसी प्रकार से ’नरक चतुर्दशी’ के दिन ’नरकासुर’ का वध गोवा की हर गली मोहल्ले में किया जाता है। भगवान ‘श्री कृष्ण’ को यहां इस दिन पूजा जाता है। ब्रिटिश काल में इस प्रथा पर रोक लगाई गई थी। लेकिन आज़ादी के बाद यहां के युवाओं ने इस धरोहर को अपने अनोखे अंदाज़ में सहेजे रखा है। इस परंपरा को जीवित रखा है। प्रत्येक वर्ष ’छोटी दिवाली’ के दिन ’नरकासुर’ के पुतले का दहन किया जाता है। ”यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का है।” भगवान ’श्री कृष्ण’ ने उसकी कैद से सोलह हज़ार स्त्रियों को छुड़ाया था। “श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ’नरकासुर’ का वध कर देवताओं व संतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई थी।
_ सोनम पुनीत दुबे
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