नयी सुबह
रोज सुबह ही अपनी किरणों के,
दल – बल सहित,
पूर्व दिशा से आ जाता है सूरज,
सब कहते हैं नयी सुबह हो गयी,
मैं इधर – उधर देखती,
तलाश करती हूँ, कहाँ है नयी सुबह?
क्या सामने वाले मन्दिर के,
आकाश छूते, चमकते ऊँचे कलश पर,
घर की छत पर,
या घर के सामने, आगे – पीछे,
एक – दूसरे को मोड़ पर काटती गलियों में?
पर नहीं ; यहाँ तो सब पहले जैसा है,
वही सुबह – शाम,
वही धूप के बनते – बिगड़ते साये,
वही गलियों में आते – जाते फेरीवाले,
सब्जी बेचती औरतें,
काम पर आते – जाते लोग,
गली में प्रेस करती कमला,
वही घर के भीतर माँ, दादी और सब लोग
अपनी – अपनी दिनचर्या में व्यस्त
सब कुछ तो वही है,
कहीं भी, कुछ तो बदला नहीं,
फिर भी सोचती हूँ,
जब सबको कहते सुनती हूँ,
आखिर कहाँ है, कब होगी वह सुबह,
जिसे हम सब नयी सुबह कह सके..?
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत) ।
वर्ष :- २०१३.