“नया साल
फिर एक तारीख़ ने
करवट लिया
थोडे से मोटे चश्मे
के काँच में
दीवार पर टंगे हुए आईने में
मेरे माथे की लकीरें
स्पष्ट दिख रहीं थीं
ये वक्त भी खुद को और एक
मुखौटा पहना रहा था
दोष चश्मे का था
या समय का
या नये साल का
आया तो है वह
एक बंद लिफाफा लेकर मगर
उसके भीतर क्या है
किसे पता?
मैंने तो रफू कर दी
कुछ आशायें
थोडे विश्वास के साथ
कुछ दुःखों को
न भुला पाने के
डर से , और चल दी
नयी कामना और प्रार्थना
के बोझ को
पीठ पर लाद कर
ये समय को भी क्या बोलूँ
जैसे ही झरोखा खोला
आ गया एक
नये सबेरे के साथ
मुट्ठी भर ‘बदलने ‘ को लेकर
और मैं एक मुखौटा पहने हुए
जीने का अभिनय
करने लगी हूँ।
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पारमिता षडगीं