नम आंखे बचपन खोए
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उम्र महज दस की मेरी
पर देख कर्म मेरा
कई गणितग गणित लगते
नित नए नए नामों से मुझको
कह कर लोग बुलाते
कोई अनाथ
कोई गरीबी का कीड़ा
कोई बाबू
कोई छोटू कह चिल्लाते
मैं जब भी सुबह निकलता घर से
मोहल्ले के बच्चों को देख
थोड़ा विचाराधीन हो जाता
चम-चमाते वस्त्र
कंधे पे बस्ता देख
मिलने से पहले नजर छुपा
शर्माकर छिप जाता
मेरे अंदर की शर्म
रूह से रूबरू हो जाती
करती सवालात
मेरे जमीर ने रूह
तू इतना देखकर उनको
क्यों घबरा जाता
खेलता हूँ साथ जिनके दोस्त कह
वो दोस्त मेरे पढ़ने स्कूल जाए
और मैं भटकता गलियों में
आवारा इधर उधर कही देख
दोस्त मेरे दोस्ती से न शरमाये
ये सोच कर शर्म मेरी
मुझे को छुपती नजरों से उनके
खुश देख उन्हे जाते
बदनाशिबी मुझे मायूस बनाए
पढ़ना तो चाहता हूँ
पाठशाला मैं जाकर साथ उनके
पर किस्मत से जेब फटी
और पाठशाला में मैहगी बड़ी
कमजोर स्थिति का परिवार मेरा
पढ़ने की सोचे तो
रात को रोटी कैसे खाए
यही सोच मेरा मन रोए
नम आंखे बचपन खोए ||
नीरज मिश्रा “ नीर “ बरही मध्य प्रदेश