नमस्ते।
शायद ये एक इशारा है कि,
मैं मुड़ जाऊं अपने रस्ते,
कि कुछ भी कहता हूं मैं,
तो वो कह देते हैं नमस्ते?,
शब्दों में छिपे सम्मान को शायद,
अब नहीं वो समझते,
कि कुछ भी कहता हूं मैं,
तो वो कहते हैं नमस्ते?,
आज भी मेरे ख़्यालों में,
वही जज़्बात हैं बसते,
ये बात और है कि वो,
हर बात पर कहते हैं नमस्ते?,
दौर था एक वो भी जब,
मेरी बातों पे थे वो मुस्कराते-हंसते,
आज भी एक दौर है जिस में,
शामिल है सिर्फ नमस्ते?,
चलिए ये नमस्ते भी मैं,
रख लेता हूं हंसते-हंसते,
कि बाइज़्ज़त इस नमस्ते को अब,
मैं “अंबर” भी कहता हूं नमस्ते ।??
कवि- अम्बर श्रीवास्तव