नभ के तारे भी छूलें
मन से मन का बंधन सच्चा मन एक जानता है।
मन का काला शत्रु मन की गलती ही मानता है।।
मकरंद पान करे भ्रमर कमल का मूल्य पहचाने।
अदरक का स्वाद भला यहाँ मूर्ख बंदर क्या जाने।।
गुण की पूजा करना सीखो ढ़ालो इसमें मन को।
संस्कार सजा सुरभि-से मन में रंगलो जीवन को।।
जीवन उजला सब कुछ उजला तम फिर कैसा होगा।
चहुँदिशा खिलेंगी खुशियाँ सब मधुबन जैसा होगा।।
विवेक दे मालिक ने सुंदर मानव रचना की है।
आने को भू पर बादल ने घोर गर्जना की है।।
तेरा-मेरा छोड़ो अब तो मन के बंधन जोड़ो।
बीती बातें भूलो सब नव युग की मंज़िल दौड़ो।।
देकर औरों को दुख तुम कैसे खुश रह पाओगे।
बोकर काँटें राहों में फूलों पर ना चल पाओगे।।
भूलभुलैया है जग बचके इससे चलना होगा।
साथी बनके अब तो संकट-सागर तरना होगा।।
प्रीतम तेरी बातें भी न्यारी-प्यारी होती हैं।
मानें सारे जगवाले खुशियाँ जारी होती हैं।।
जैसी करनी वैसी भरनी अहंकार में भूलें।
वरना भरके हम उड़ान नभ के तारे भी छूलें।।
आर.एस.”प्रीतम”
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