नन्ही भिखारन!
सड़क किनारे रोशनी में बैठी
कैसे देख रही टुकुर-टुकुर
और कार आते ही लाल लाइट पर
दौड़ती पूरे ज़ोर से उस कार के तरफ़
एक नन्ही भिखारन।
नाम शायद उसे भी ना पता हो
पहचान बस इतनी कि
सड़क किनारे बड़ी गाड़ियों
के आगे आकर हाथ फैला कर
माँगती है एक वक्त का खाना
या फिर २ रुपए।
शायद इस से ज़्यादा पैसे उसे
पता ही नहीं थे
इसलिए बस २ रुपए में हट जाती थी
वो नन्ही भिखारन।
रोज़ दिखती थी मेरे ऑफ़िस के
रास्ते के एक बत्ती पे
कभी हाथों में २-५ रुपए लिए
तो कभी कुछ खाते हुए
गंदे मटमैले कपड़े में सिमटी
गंदे बालों को हाथों से मुँह से हटाते
वो नन्ही भिखारन।
एक दिन मैंने सोचा बात करूँ
पूछूँ कि क्या खाना है उसे?
यहीं कोई ९-१० बरस होगी उमर
और आँखों में थी मासूमियत बाल सुलभ
पर आँखें ऐसी जो ना धोखा दे सके
ना फरेब कर सके
और ना ही झूठ बोल सके।
मुझे देख घबराई, थोड़ी शरमाई
शायद आदत नहीं थी
अजनबी से बात करने की
या फिर उम्मीद ना हो कि कोई
गालियों के अलावा भी
उस से बात कर सकता है।
मैंने नाम पूछा तो बोली पूजा
परिवार पूछा तो दिखाया एक
औरत को, जो लग रही थी पागल
बोली, माँ है मेरी।
तो क्या हुआ बीमार है तो
बच्चे बीमार हो तो
क्या माँ उन्हें छोड़ देते है
तो भला मैं कैसे छोड़ दूँ
इस पागल को।
हतप्रभ मैं देख
उसकी हिम्मत, उसका साहस
इस उमर में पर्वत सा
अथाह और दृढ़ संकल्प।
इन उच्च विचारों को
भला मैं क्या दे सकती थी
और कैसे दे सकती थी कुछ
ऐसा लगा मानो मैं हूँ भिखारन
कितना कुछ दे गई
कई पाठ सिखा गई मुझे
वो नन्ही भिखारन।