नदी (पहले और आज)
नदी पहले और आज
नदी किनारे मिलती थी चैन और आराम ,
कभी-कभी हम करने आते थे यहां विश्राम।
लेकिन वह नदी पहले जैसा नहीं रही ,
कचड़े का ढेर है बन गई।
जहां कभी हवाओं का आनंद लेते थे ,
ताजी हवाएं अपनी अंदर भरते थे।
लेकिन अभी नाक सिकुड़े रखते हैं ,
वहां जाने से भी कतराते रहते हैं।
पक्षियों की बोली जहां पर सुनाई देती थी ,
वहीं पर है मच्छर मक्खियां भिनभिना रही ।
मानचित्र में तो है स्थान इस नदी का,
लेकिन किसे पता इसकी है यह दशा।
हर नदियां बहती है मनुष्यों का उपकार करती है ,
लेकिन मनुष्य तो उसको नकार देती है।
जहां पर तन का मैल रगड़ कर साफ़ करते थे ,
जहां पर मन उदास होने पर बैठते थे ।
लेकिन वहां कचड़े का बस्ता फेंका जाता है,
और नदी को गंदा किया जाता है।
प्राकृतिक सुंदरता किसी को ना सुहाता है ,
सभी को बस अपना ही घर साफ रखना है ।
मनुष्य क्यों यह भूल करते जा रहे हैं ,
और अपनी ही दुर्गति बुला रहे हैं।
प्रकृति को शांत देख जो उस पर अत्याचार किया जाता है,
उसके विपरीत प्रत्युत्तर भी समय-समय पर मिलता है ।
लेकिन सीख तो नहीं पाते हैं ,
वही गलतियां करते ही जाते हैं ।
अपनी -अपनी सुविधा के लिए,
भविष्य के विषय में नहीं सोचते हैं ।
मनुष्य की यह स्वार्थपरता विनाशोन्मुख हो रही है,
और पर्यावरण रोगयुक्त हो गई है।
उत्तीर्णा धर