नदी के द्वीप
अपने पुरखों की परंपरा का
हम करते क्यों नहीं निर्वाह
परस्पर प्रेम, सहयोग भुला
बैठे जिसमें शक्ति अथाह
स्वार्थ सकेंद्रित हो गया है
क्यों हम सबका व्यवहार
नदी के द्वीप से बनते जा
रहे अब अधिकांश परिवार
भौतिक संसाधनों के संग्रह
तक सीमित हरेक की चाह
दिन पर दिन बढ़ता ही जा
रहा समाज में मानसिक डाह
मानसिक अवसाद और तनाव
की चादर पसर रही चहुंओर
ऐसे में मानव को कैसे मिल
सकेगा में कहीं सुरक्षित ठौर
जीयो और जीने दो का संदेश
अब किताबों तक ही सिमटा
कदम कदम पर सिसक रही
अब निरीह गाय सी मानवता