नदी के दो किनारों सा रिश्ता
अपने अश्क़ों को,लबों पर सजाने लगे हैं हम,
दाग़ उन पर न लगे कोई,मुस्कराने लगे हैं हम,
वो रुसवा न हो जाये, मेरे नाम से जमाने में
ख़तों में अपने नाम उनका, मिटाने लगे हैं हम,
साथ मेरे नहीं हैं वो, वज़ह कुछ तो रही होगी
ख़्वाब देखे थे जो साथ, दफनाने लगे हैं हम,
मेरे अल्फाज़ो में इश्क़ महफूज़ रहे यही सोचकर
अब शायरों की महफ़िलों में, जाने लगे हैं हम,
नाम मिल जाये हर बार, यह जरूरी भी नहीं
नदी के दो किनारों सा रिश्ता, निभाने लगे हैं हम,,