नए दौर का भारत
उसने झूठ ऐसा बोला कि लोग सच ही भूल गए,
कौन कहाँ से आया है अपनी जमीन ही भूल गए।।
यह नई किस्मत है हिंदुस्तानी जम्हूरियत की,
एक ही नाम बाकी है बाकी सब नाम ही भूल गए।।
गंगा जमुना के मैदान में कटीली बबूल उग आये है,
हवा ऐसी चली कि लोग बागों की रंगत ही भूल गए।।
ये कौन मुंसिफ आया है इस मुल्क में,
जिसने सोने की लंका ठुकरा दी उसकी सीरत ही भूल गए।।
बाबाओ का दौर चल रहा है नए राष्ट्र भारत में,
मंदिर निर्माण में लोग फैक्टरी प्रयोशाला ही भूल गए।।
जिधर देखो उधर झंडे और रैलियों के मजमें है,
जय श्रीराम के नारे में नौजवान रोजगार और कॉलेज ही भूल गए।।
मुँह पर दाढ़ी हाथों में फोन है हर किसी के,
रील बनाने की होड़ में लोग रियलिटी ही भूल गए।।
दुकानों के बाहर लंबी कतारें लगी हैं,
मुफ्त राशन के लिए लोग संतानों की किस्मत ही भूल गए।।
समझ नहीं आता हम आगे बढ़े हैं या पीछे,
नए दौर की चर्चा में इतिहास को याद कर भविष्य ही भूल गए।।
prAstya…… (प्रशांत सोलंकी)