ध्रुवदास जी के कुंडलिया छंद
भजन कुंडलिया
हंस सुता तट बिहरिबौ, करि वृंदाबन बास।
कुंज-केलि मृदु मधुर रस, प्रेम विलास उपास।।
प्रेम-विलास उपास, रहे इक-रस मन माही।
तिहि सुख को सुख कहा कहौं, मेरी मति नाहीं ।।
‘हित ध्रुव’ यह रस अति सरस, रसिकनि कियौ प्रसंस।
मुकतनि छाँड़े चुगत नहिं, मान-सरोवर हंस ।।१
नवल रँगीले लाल दोउ, करत विलास-अनंग।
चितवनि-मुसकनि-छुवनि कच, परसनि उरज-उतंग ।।
परसनि उरज उतंग, चाह रुचि अति ही बाढ़ी।
भई फूल अंग-अंग, भुजनि की कसकनि गाढ़ी।।
यह सुख देखत सखिनु के, रहे फूलि लोइन कमल।
‘हित ध्रुव’ कोक कलानि में, अति प्रवीन नागर नवल ।।३
मदन केलि को खेल है, सकल सुखन कौ सार।
तेहि विहार रस मगन रहें, और न कछू सँभार ।।
और न कछु सँभार, हारि करि प्रान पियारी।
राखति उर पर लाल, नेकहूँ करति न न्यारी ।।
याही रस कौ भजन तौ, नित्य रहौ ‘ध्रुव’ हिय-सदन ।
कुंज-कुंज सुख-पुंज में,करत केलि लीला-मदन ।।५
प्रेमहि शील सुभाव नित, सहजहि कौमल बैन ।
ऐसी तिय पिय-हीय में, बसति रहौ दिन-रैन ।।
बसति रहौ दिन रैन, नैन सुख पावत अति ही।
प्रिया प्रेम-रस भरी, लाल तन चितवति जब ही।।
देखौ यह रस अति सरस, बिसरावत सब नेम ही।
“हित ध्रुव’ रस की रासि दोउ, दिन बिलसत रहें प्रेम ही।।७
सीस-फूल झलकान छबि, चंद्रिका की फहरानि।
‘ध्रुव’ के हिय में बसत रहौ, बिबि चितवनि मुसकानि ।।
बिबि चितवनि मुसकानि, रहौ यौं उर में छाई।
तिहिं रस केवल मनहिं, और कछुवै न सुहाई।।
या शोभा पर वारियै, कोटि-कोटि रति-ईस ।
रीझि-रीझि नख-चंद्रकनि, जब लावत पिय सीस ।।९
ऐसें हिय में बसत रहौ, नव-किसोर रस-रासि ।
चितवनि अति अनुराग की, करत मंद मृदु हाँसि ।।
करत मंद मृदु हाँसि दोउ, होत जु प्रेम प्रकास ।
छके रहत मदमत्त गति, आनंद मदन विलास ।।
‘हित ध्रुव’ छबि सौं कुंज में, दै अंसनि-भुज वैसे।
मेरी मति इति नाहिं, कहौं उपमा दै ऐसे ।।११
राधावल्लभ लाल की, बिमल धुजा फहरंत।
भगवत धर्महुँ जीति कैं, निजु प्रेमा ठहरंत ।।
निजु प्रेमा ठहरंत, नेम कछु परसत नाहीं ।
अलक लड़े दोउ लाल, मुदित हँसि-हँसि लपटाहीं ।।
‘हित ध्रुव’ यह रस मधुर है, सार को सार अगाधा।
आवै तबहीं हीय में, कृपा करें वल्लभ राधा ।।१३
श्रीराधा वल्लभ-लाड़िली, अति उदार सुकुमारि ।
“ध्रुव” तौ भूल्यौ ओर ते, तुम जिनि देहु बिसारि।।
तुम जिनि देहु बिसारि, ठौर मोकों कहुँ नाहीं।
पिय रँग-भरी कटाक्ष, नेकु चितवौ मो माहीं ।।
बढ़े प्रीति की रीति, बीच कछु होइ न बाधा।
तुम हौ परम प्रवीन, प्रान-वल्लभ न श्रीराधा ।।१५
वृंदाविपिन निमित्त गहि, तिथि बिधि मानें आन।
भजन तहाँ कैसे रहै, खोयौ अपनै पान।।
खोयौ अपनै पान, मूढ़ कछु समुझत नाहीं।
चंद्रमनिहिं लै गुहै, काँच के मनियनि माहीं ।।
जमुना-पुलिन निकुंज-घन, अद्भुत है सुख को सदन।
खेलत लाड़िली-लाल जहँ, ऐसौ है वृंदाविपिन । ।१७
बार-बार तो बनत नहिं, यह संजोग अनूप।
मानुष तन, वृंदाविपिन, रसिकनि-सँग, बिबिरूप ।।
रसिकनि-सँग बिबिरूप, भजन सर्वोपरि आही।
मन दै “ध्रुव” यह रंग, लेहु पल-पल अवगाही ।।
जो छिनु जात सो फिरत नहिं, करहु उपाइ अपार।
सकल सयानप छाँड़ि भजु, दुर्लभ है यह बार।।१९
भजनसत
बहुत गई थोरी रही, सोऊ बीती जाइ ।
‘हित ध्रुव’ बेगि बिचारि कै, बसि वृंदावन आइ।
बसि वृंदावन आइ, लाज तजि के अभिमानै ।
प्रेम लीन है दीन, आपकों तृन सम जानै।
सकल भजन कौ सार, सार तू करि रस-रीती।
रे मन देखि बिचारि, रही कछु इक बहु बीती ।।१०२
प्रेमावली लीला
पिय-नैंननिं को मोद सखी, प्रिया-नैंन को मोद।
रहत मत्त विलसत दोऊ, सहजहि प्रेम-विनोद ।।
सहजहि प्रेम-विनोद, रूप देखत दोउ प्यारे।
लोइनि मानत जीति, दुहुँनिं जद्यपि मन हारे ।।
परे नवल नव केलि, सरस हुलसत हिय सैंननि।
छिन-छिन प्रति रुचि होइ,अधिक सुंदर पिय-नैंननि ।। १२१