धूल-मिट्टी
पत्तों पर जमी धूल,चिपटी है उनसे
जैसे चिपटा है विकास मानव सभ्यता से..
टूट-टूटकर मिट्टी बदल गयी है धूल में,
ये वही मिट्टी है जो बांध लिया करती थी
सबको सबसे और जीवन को जीवन से
और गढ़ देती थी हम सब की दुनिया
आकार देती थी पेड़-पौधों को माँ जैसे
वो मिट्टी बस थोड़ी सी बच रही है अब
गमलों और क्यारियों में पौधों के साथ
बाकी तो धूल बन छा गयी है पेड़ों पर,
जो मिट्टी सींचती थी पेड़ों को बच्चों सा
वो तरस रही धूल बन पेड़ों से धुलने को
इसीलिए रूठी है बरखा भी क्योंकि अब
नहीं रही वो मिट्टी जो सोख लेती थी उसे,
और भर दिया करती थी धरती की कोख
ताकि उलच सके धरती अपनी ममता को
और बुझा सके प्यास सृष्टि के तंतुओं की
मिट्टी ही बनाती थी चूल्हे,मिटाती थी भूख
नहीं रहे चूल्हे औ मिटती नहीं अब भूख
मिटे भी कैसे अब जब मिट गयी वो मिट्टी ही….