धूल ज़हनों पे…
मालो ज़र की तो’ बेशक कमी रह गई
शुक्र है साख अपनी बनी रह गई
क्यों दिलों में बसाकर रखी तल्खियां
अब ज़ुबां पर तिरे चाशनी रह गई
मसअला तो निपट ही चुका है मगर
एक दीवार दिल में खड़ी रह गई
जब तुम्हारे ही’ हक में हुआ फैसला
धूल ज़हनों पे फिर क्यों जमी रह गई
रह गईं प्यास, अरमां तड़पते रहे
बादलों की ज़मीं से ठनी रह गई
हर खुशी साथ उसके रवाना हुई
सिर्फ आंखों में अब तो नमी रह गई
मालो जर के लिए गांव को छोड़कर
लग रहा है कि दुनिया वहीं रह गई