धूमिल होती यादों का, आज भी इक ठिकाना है।
धूमिल होती यादों का, आज भी इक ठिकाना है,
वेदना भरी चीखों का मुख से नहीं, आत्मा से ताना-बाना है।
मान-सम्मान बढ़ाने को, उसे डोली में लेकर आना है,
फिर वही मान हनन कर उसे, पाताल की राह में भटकाना है।
पहले तो इंद्रधनुषी रंगों से, उन नयनों को सजाना है,
फिर उन्हीं आशा भरे नयनों को, सपनों से वंचित करवाना है।
कृत्रिम सुंदरता की आर में, उसे पायल तो पहनाना है,
फिर उन्हीं पायलों को, जंजीरों का रूप दे जाना है।
घर की गृहस्वामिनी होने का, भ्रमजाल भी फैलाना है,
फिर उसी घर को उसके लिए, शापित कोठरी भी बनाना है।
प्रेम की पवित्रता को, स्वार्थ में रंग जाना है,
और चरित्र पर उसके हीं, सैंकड़ों सवालों को उठाना है।