*धूप ही धूप नजर नहीं आती कहीं छाँव है*
धूप ही धूप नजर नहीं आती कहीं छाँव है
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मंजिलों पर हम चल पड़े हमारे नंगे पाँव हैँ,
धूप ही धूप नजर नहीं आती कहीं छाँव है।
रग-रग में है बसी हवा पानी मेरे ग्राम का,
शहर में आकर हम बसे याद आते गाँव हैँ।
माटी में माटी हो सदा लथ-पथ हो खेलते,
कर नहीं पाया कभी पूरे हमारे वो चाव हैँ।
रोकने पर भी रुक न पाए भाव चेहरे पर,
नैनो से यूं गिर पड़े अश्रु न कोई ठहराव है।
लाख कोशिशें धरी रह गई मानसीरत यहाँ,
मन से न भुलाए जाते कभी कैसा प्रभाव है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेडी राओ वाली (कैंथल)