धुंधली सी परछाई
धुंधली सी परछाई
वह दृश्य भयावह कुदरत का,जब डरा-डरा बेबस मानव था।
भयभीत अकथ घबराई सी, थी त्राहि-त्राहि करती मानवता।
वह धरा धंसने का दृश्य भयंकर,था निर्मम पर्वत का रौद्र रूप।
वह धुंधली सी परछाई उदास, जीवन शंकित, कंपित निर्जीव।
पथराई आंखें, बेबस इंसान, हाहाकार प्रबल निर्दय प्रकृति का।
तममिश्रित हिम-कण-घन छाया, अति क्षीण दृश्य धुंधला सा।
हिम के बादल , हिमपुंज घना, जाग्रत सुप्त कुंभकर्ण-सम था।
तैयार लीलने को सर्वस्व, जो कुछ भी उसके सम्मुख था ।
शीत उदधि में जीवन खोता, जस डूब रही थी मानवता।
वह स्खलन का दृश्य करुण, कवि तो कभी भूल ना पाया।
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता ,मौलिक /स्वरचित।