धवल बर्फ की झीनी चादर पर
धवल बर्फ की झीनी चादर पर, चांदनी का यूँ मुस्कुराना,
सपनों में खोई झील की लय पर, चाँद का खुद उतर आना।
मदहोशी में पत्तों को गिराकर, शाख का यूँ शर्माना,
थरथराती बातों की आर में, खामोशी को फिर सूना जाना।
दूर – दूर तक फैली तन्हाई, और सायों का यूँ गहराना,
रुई के जैसे बादलों का, आसमां पर घिरकर आना।
रात की गहरी निस्तब्धता में, उदासियों का मुक्त हो जाना,
जो सुन सको तो सुनो, शून्यता में गूंजता वो तराना।
एक सुकून देता है अब यूँ, ठंडी हवाओं का चुपके से टकराना,
कंपकपाती सी चाहतों का फिर, कोहरे की गलियों में धुंआ हो जाना।
बेचैन से मन को थामने को, खुद से हीं बहाने बनाना,
प्रेम और डर की मध्यस्थता पर सोई आँखों को झपकाना।