धर्म की राजनीती
धर्म का कांटा किसको तोले,
जो भी बोले नफरत घोले ।
सब बन बैठे उसके ठेकेदार,
उससे नहीं किसी को प्यार ।
वर्चस्व का ये खेल पुराना,
खून खराबे का है ये घराना ।
मिटटी पत्थर के लिए लड़ाई,
फिर देखी क्या किसने खुदाई ।
प्यार के पाठ पढ़ने वाले,
छलकते नफरत के प्याले ।
भले मानस सब इसमें पिसते,
देख तमाशा बाकी हँसते ।
नेता नगरी वोट बटोरें,
देके तसल्ली सुबह सवेरे ।
ये नफरत न मिटने वाली,
धर्म के नाम पे देकर गली ।
इसका नहीं हैं कोई समाधान,
इंसान एक पर कई भगवान ।
तो लड़ो लड़ाई अपनी अपनी,
फिर जैसी करनी वैसी भरनी ।