धरी नहीं है धरा
धरी नहीं है धरा कहीं पर
यह सदैव गतिमय है।
इसके अपने स्वर-व्यंजन हैं
इसकी अपनी लय है।।
इस पर लहराते हैं सागर
रत्नाकर कहलाते।
कभी ज्वार-भाटा से दोलित
कभी शान्त सुख पाते।।
सूरज उदय-अस्त होता है
शशि भी आता-जाता।
विविध विहंगों का कलरव भी
मानव-मन हर्षाता।।
तारे दीप्ति दिखाते अपनी
सुमन मोहते मन को।
शीतल-मन्द-सुगन्ध समीरण
ताकत देता तन को।।
नये-नये अनुभव करते नित
हम धरती के वासी।
तन तो अपना क्षणभंगुर पर
आत्मा है अविनाशी।।
अविनाशी आत्मा पर लगता
जल का दाग नहीं है।
यह इतना तेजोमय होता
छूती आग नहीं है।।
महेश चन्द्र त्रिपाठी