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17 Feb 2024 · 1 min read

धरा प्रकृति माता का रूप

खुशहाली है जहाँ सदाबहार,
ऐसी धरती है अपनी प्यारी,
बोझ नहीं जो समझती तुमको,
माँ की भांँति सब न्यौछावर करती।

हरा–भरा वन उपवन ,
सागर, नदिया, झील-सरोवर,
ऊँचे पर्वत और गहरी खाईयाँ,
गर्भ में इसके खनिज भंडार।

धन के करण व्यापार बनाया,
शहरीकरण में वनो काटा,
औद्योगीकरण है स्थापित किया ,
वृक्षों को है भुलाया ।

अपशिष्ट पदार्थों को फेक यदा-कदा,
लापरवाही का परिचय दिखाया,
निज स्वार्थ उत्पादन के चक्कर में,
भूल गया तू ,तु भूल गया मानव ।

धरती माँ बिन जीवन कैसा?
पृथ्वी जैसा घर नहीं दूजा,
रोयेगा पछताएगा एक दिन,
पर्यावरण गर नहीं बचाएगा।

नहीं हुआ जागरूक तत्काल,
प्रदूषण लाएगा विध्वंस,
त्राहि त्राहि तभी मचेगा,
इसलिए करता हूँ सचेत।

मै मानव हूँ तेरा सपूत,
धरा प्रकृति माता का रूप,
सम्मान और रक्षा करूंगा सदैव,
पर्यावरण स्वच्छ रखूँगा जरूर।

रचनाकार –
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।

1 Like · 205 Views
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