*धरती माँ*
हमारी प्यारी धरती माँ
जिसने हमें दौड़ने को अपनी हथेली दी –
जिसने हमारी हर तरह से परवरिश की –
हमें पाला, पोसा, बड़ा किया –
जीवन के झंझावातों को झेलने के लिए
अपने पैरों पर हमें खड़ा किया –
सबसे पहले हमारी माँ ने
जो अनाज हमें खिलाया था –
वह भी तो इस धरती माँ ने ही
उपजाया था –
जब धूप की तपिश से
हमारे मन- प्राण जल रहे थे,
तब शीतलता पहुँचाने को
पानी बरसाया था –
और जब कंपकंपी ठंड से हम बेहाल हुए –
तब बसंती बयार ने थे हमारे गाल छुए –
इसी माँ की गोद में
हमने खेलना, खाना, बढ़ना सीखा –
मन, मस्तिष्क और शरीर की ताकत पाकर,
हर कठिनाईयों से लड़ना सीखा –
फिर कभी सोचा है –
ऐ धरती वासियों !
कि माता का ऋण हम कैसे चुका रहे हैं ?-
निर्दयता से धरती के वृक्षों को काटकर
कंक्रीट का जंगल उगा रहे हैं –
जब पेड़ ही नहीं होंगे,
बारिश कहाँ से आएगी ? –
सोचा है तब प्रचंड धूप की किरणें
कितना हमें जलाएगी ? –
विज्ञान की तकनीकों से हम
सुख के साधन तो जुटा रहे हैं –
लेकिन इस उपक्रम में
जहरीले गैस फैला रहे हैं –
पहाड़ की चोटियों पर जमे बर्फ को
नाहक ही पिघला रहे हैं –
जब तापमान का संतुलन बिगड़ जायेगा –
भीषण गर्मी से छटपटाकर,
प्राणी ! बता तू किधर जाएगा ? –
समुद्र का जलस्तर भी
जब शनैः शनैः ऊपर उठ जाएगा –
मानचित्र पर शोभायमान
कई छोटे, जल से घिरे देशों का
अस्तित्व ही मिट जाएगा –
ज्यों ज्यों हरियाली घटती जाएगी –
साँसों की डोर भी सिमटती जाएगी –
इसलिए ,
ऐ इंसानों !
अभी वक्त है, सँभल जाओ –
अपनी आनेवाली पीढ़ी का जीवन
और अधिक दुष्कर न बनाओ –
अब समय आ गया है,
आज ही ले लो यह संकल्प –
क्योंकि इसका कोई नहीं विकल्प –
जबतक जियो अपने हर जन्म दिवस पर
कम से कम एक वृक्ष लगाओ –
इस तरह धरती माँ की नेमतों का कर्ज
अंशतः तो चुकाओ ।