धत्त तेरे की
धत्त तेरे की
तरह-तरह की व्यस्तता के बीच आ गये मग विदूषक देवन मिसिर. कहा गया, ” इनपर कहानी लिखीए.”
आँती में इनपर एक गोष्ठी रखी गयी है १३ सितम्बर को. राजभाषा विभाग के निदेशक मुख्य अतिथि रहेंगे. आपको इनपर कहानी लिखना है, ताकि बढ़िया परिवेश बने.
कहानी पर सोंच बनने लगी और लिखने को उत्प्रेरित हुआ, अपने भाई राजु की उत्प्रेरणा से.
देवन मिसिर पर के खिस्से- कहानियाँ प्रथम श्रेणी के घर पर बाबा से एवं ननिहाल में नानी से सुना करता था. द्वितीय और तृतीय श्रेणी की भेग कहानियाँ इधर-उधर से. जिसमें मामा-मामी तथा अन्यान्य जिनसे मजाक का रिस्ता चलता.
खिस्सा तो बहुत सुनता था, मगर स्मरण में एक-दो ही रह गया था. भागदौड़ भरी जिंदगी में कितना-क्या-कुछ याद रहे ? फिर भी जो याद रहा उसको लिखने में लगा और कहानी बनने लगी. इसमें अपनी पंडिताइन भी सहायक बनीं.
“इ अइसे न अइसे”
बाद में पंडिताइन गरमाने भी लगीं, “तुँ लिखबs कहानी. घर में दिन-दिनभर बइठ के देवन मिसिर पर कहानी लिखे चललन हे.”
अब लिजीए.
घर से चचा जी का फोन आ गया. ” का दिलीप का चल रहा है अभी ? सब ठीक है न ?”
“जी चचा जी प्रणाम !”
“तब इधर आने का……….”
“आँती में देवन मिसिर पर एक कार्यक्रम है, उसी में जाना है. बाबुजी कैसे हैं ? हम तो फोन लगाते हैं तो उठाते ही नहीं हैं.”
“ठीक हैं, उनका केस का डेट और आगे खिंचा गया दिसम्बर में डेट पड़ा है. पिंटू का ससुर कहता है वकील जो कहेगा, वही हम करेंगे.”
हद हैं बाबुजी.
फिर बाबुजी का एक दिन बाद फोन आता है, “छोटका बताया है कि तुँ आँती जा रहे हो. मत जाना उधर, बड़ा इलाका खराब है. अरे ! देवन मिसिर पर त बहुते कहानी हमरा याद है. एकरा मतलब का ?”
” प्रणाम बाबुजी! तब हमर हिंसबा…………”
बस फोने कट गया.
ओह! हिस्सा के चर्चा अभी काहे ला कढ़ाबे गये थे. एकाध कहानी जरूरे उकट देते और हमरा उसका प्लॉट भेंटा जाता. खैर ! इ चचा से भी सावधाने रहे के जरूरत है. लगता है, इधर के बात उधर तक सीधा- सीधी पहुँचा देते हैं.
पाँच कहानी जैसे-तैसे कर के लिखीए दिया. पोस्ट भी किया, सब पसन्द भी किए और टिप्पणी भी दिए.
उधर बैनर में मेरा नाम कथा वाचक के रूप में छप गया. अहसास हुआ, बहुत बड़ी जिम्मेवारी मुझपर लाद दी गयी है. जब कहानी लिखने बैठा था, तब एकदम खाली-खाली था. कार्यक्रम की तिथि नजदीक आते-आते व्यस्तता भी बढ़ने लगी. पूजा-पाठ, जप-तप, जजमान डिलींग, गाड़ी आर्डर सबकुछ. क्या किया जाय? एक खबर और आ गयी, “कार्यक्रम एकदिन पहले ही होगा. निदेशक साहब को १३ को दूसरे कार्य में व्यस्तता है. इस कारण.”
ले बलइया.
मुझे कहा गया , “आप ग्यारह को ही चले आइए.”
मतलब की मुझे दस को चलना होगा. दस को तरह-तरह की व्यस्तता. दोपहर को एक सन्तरागाछी- अमृतसर साप्ताहिक सुपरफास्ट ट्रेन थी. मगर छुट गयी. उससे गया तक जाने में आराम मिलता.
“पंडित जी, विश्वकर्मा पूजा का लिस्ट दे देते न.”
सोचा, चलें इनका लिस्ट दे देते हैं, अब तो जाना भी होगा तो रात में बस से.
लिस्ट देकर वापस घर आये. मन भारी लगने लगा. मिजाज असहज होने लगा. मन में विचार बनने लगा, “न जाएँगे.”
“कितना कार्यक्रम लिए हुए हैं ? सब बइठुआ काम. कहीं गड़बड़ा गया तो……… तबीयत गड़बड़ लग रहा है सो अलग.”
राजु के पास फोन लगाया. खाली घंटी बज के रह गया. चल भाई.
रात की बस भी नहीं पकड़ा. अब देखेंगे कल.
ग्यारह को ६ बजे के लगभग सुबह में पुरूषोत्तम है. मगर हो गया रात्रि जागरण. एक जजमान आ गये, और समस्या पर समस्या पटकते गये. जिसका निदान सुनते-सुनते साढ़े बारह रात कर दिए.
“ओह! पंडित जी, ये तो साढ़े बारह बज गया. हम फिर ……..”
पंडिताइन पकपका के किबाड़ बन्द करके सो गयीं. मुझे भुख लगी है सो अलग. रसोई में जाने का पावर नहीं है. ऐसे ही सोने का प्रयास करने लगा. मगर निन्द माई मर गयीं थीं. आ गये थे देवन मिसिर अपनी एक कहानी के साथ. पुरी रात कहानी चलती रही. ब्रह्म मुहुर्त में पुरा हुआ. तब नींद आ गयी जो टूटी ठीक साढ़े आठ में. तबतक पुरूषोत्तम पुरूलिया पार कर रही होगी. धत्त तेरे की.