द्वंद
मन मृदुल भाव का घोतक था,जिसको दुनियां ने छला बहुत।
माना दीपक बुझ गया किंतु,संघर्ष पंथ पर जला बहुत।
जीवन ने अवसर दिया नहीं,किस्मत से अक्सर हारा मैं।
मेहनत में कुछ न कमी रही,पत्थर तक को पुचकारा मैं।
किस अर्थ अनर्थ की बात करूंँ,मन विवश हुआ लाचार हुआ।
कंठों का क्रंदन राग हुआ,आंखों का अश्रु शृंगार हुआ।
जब विपुल व्योम की आशाएं,दिनकर का धवल ओज समझे।
रंगहीन दृश्य किसकी तुलना,चितवन है विकल खोज समझे।
फिर भी चितवन चिंतित क्यों है,सच समझ पिंगला रोए क्यों
फिर भावशून्य का निर्माता, मन स्वप्न स्नेह संँजोए क्यों?
हर बंँध में केवल प्रश्न मिला,उत्तर की विरल अपेक्षा में…
मैं विफल हुआ, मैं विफल हुआ, जीवन की जटिल परीक्षा में।
है कौन जो समझे मेरा मन, दुःख ग्रसित सुखों की आकिंचन।
पल पल की घूंँटन, रुदन,चिंतन,मन का दोहन करती क्षण क्षण।
हर बंँध में केवल प्रश्न मिला,उत्तर की विरल अपेक्षा में…
मैं विफल हुआ, मैं विफल हुआ, जीवन की जटिल परीक्षा में।
फिर इक वो दिन भी आएगा ,जब जग का कण कण जीतूंँगा
जीतूंँगा समय की सार सुधा,अर्पित मन क्षण क्षण जीतूंँगा।
दीपक झा रुद्रा