“दो हजार के नोट की व्यथा”
न किसी की आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ ।
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया
मेरा गाँधी मुझसे बिछड़ गया
जो तिजोरी में रह सड़ गया
मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ ।
मुझे बटुए में ले के जाए क्यूँ
मुझे उधार ले के जाए क्यूँ
जिसे उठाईगिरे भी उठाए ना
मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ ।
कभी ‘छुट्टा नहीं’ सुन के ख़ुश था
आज छुट्टी हुई तो हताश हूँ
जिसकी औक़ात सामने आ गई
मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ ।
मेरा मान-मूल्य जो भी था
उसका दारोमदार कोई और था
इक हवा चली और जो ध्वस्त था
मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ ।
कभी मुझे बहुत गुमान था
और आज मैं गुमनाम हूँ
कोई संगी साथी ना है मेरा
मैं वो रूपया दो हज़ार हूँ ।
संकलन. राधाकिसन मूंधड़ा, सूरत, गुजरात।