दो सहोदर
दो सहोदर,
साथ–साथ पला,
बढा,
पवरिश और छत्तरी,
मार्ग, लक्ष्य भी एक,
माता–पिता का,
समान स्नेह भी मिला ।
पर, शादी होते ही,
सबकुछ बदला,
अब, दो सहोदर,
अलग–अलग,
ध्रुब में,
राहगुजर बन बैठा,
दो अजनबी के तरह,
एक ही छत तले,
किरायेदार सी भूमिका,
निर्वाह करने को आतूर ।
वही दो सहोदर,
अब, अपने संतान को,
एक–दूसरों के खिलाफ,
बनाने की प्रतियोगिता में,
भावी पीढी को भी,
अपनों ही से,
अपनों को दूर,
धकेलता ।
अब, तो वह सरोदर
कहा रहा,
एक ही शहर में,
अनजान सी,
जीवन ढो रहा,
अपनों ही के,
शुभ कार्य,
अन्त्येष्ठि में भी,
अपनों से ही,
हकार–न्यौता रीति
प्रचलन,परम्परा
निभाता ।
#दिनेश_यादव
काठमाण्डू (नेपाल)