दो घूंट
अद्भूत सहास जगाया, हे मानव!
खुद को ही बहकाने का
खुशी मना रहा है या
गम छूपा रहा जमाने का।
रईस इतना हो गया या
कारोबार बढ़ा रहा महकाने का
समझ नही आता, हे मानव!
राज़ दो घूंट लगाने का॥
रूठ गया है क्या दिल तेरा
जो करता कोशिश मनाने का।
भूल गया है सब कुछ या
स्वांग रचा रहा भूलाने का।
चर्चित हो गया, हे मानव!
पाथिक राज घराने का॥
शौक इतना हो गया है या
आदि हो गया है पिने का।
भूल गया जो अपनापन या
भूला रहस्य जीने का।
पूछ ला अब तू ,हे मानव!
हाल ए दर्द सिने का॥
खूब ढूढां है ये साथी
खुशियो को मनाने का।
खूब ढूढां है तुने सहभागी
गमो को भूलाने का।
गवां दिया तुने, हे मानव!
अद्भूत प्रेम ज़माने का॥
…………संजय कुमार “संजू”