दो घड़ी राहत
दो घड़ी राहत
न जाने क्यूँ आजकल
मज़ा आता है सोचने में –
यूं ही किसी बात को ले
कल्पना के पंख लगा
इधर से उधर, उधर से इथर
ऊपर नीचे दाएं बाएं
और न जाने किधर किधर।
उड़ती कुलांचे भरती
निकाल जाती हूँ दूर कहीं
इस दुनिया से बेखबर
अपनी मस्ती मेँ तरबतर ।
खो जाती हूँ स्वप्न लोक में
दिवा स्वप्न नहीं चाहती
पर फिर भी देखती हूँ
शायद इस लिए कि
दो घड़ी तो राहत मिलती है
समस्याओं से पूर्ण इस जीवन से।