दोहे
आक्रोशों के गाँव
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अभिनन्दन की धूप में, मौन पड़े हैं शब्द.
आँखों में संतोष के, घुमड़ रहे हैं अब्द.
आसमान से झाँककर, देख रही है आँख.
संकट पंछी के गिरे, कहाँ-कहाँ हैं पाँख.
दोहे छेड़ेंगे कभी, संवेदन का राग.
आक्रोशों के गाँव में, ठहरेगा अनुराग.
ऐसे पल आते नहीं, जीवन में हर बार.
सुभग बधाई मान्यवर, मेरी हो स्वीकार.
धरती कुहरे से लदी, पंख करें संघर्ष.
निकला है ठिठुरा हुआ, नया साल का वर्ष.
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ