दोहे
नहीं कहीं है झोंपड़ी
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नहीं कहीं है झोंपड़ी, कहीं न रोटी-दाल.
सड़क किनारे झाँकते, फटे-फटे तिरपाल.
पता नहीं अब हैं कहाँ, सत्य सोच के योग.
राजनीति को लग गया, जातिवाद का रोग.
धूल देह में घोंसता, मानवीय आचार.
सत्य अहिंसा हो गये, मंडी के बाजार.
बहुमत के गणदेवता, पहन जीत का टोप.
बने विपक्षी सदन में, जनमत के आरोप.
चमड़ी-चमड़ी खा गये, नोच-नोचकर गिद्ध.
हम करते ही रह गये, पैथागोरस सिद्ध.
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
मेरठ