दोहे
दोहे
सरस्वती
सात सुरों की धारिणी , दे दो माँ वरदान
किरपा होये आपकी , पाये नर तब ज्ञान
मात मुझे तुम बना लो , अपनी वीणा तार
बैठ आप की शरण में , पाऊँ सुर का सार
कान्हा
मुरली वाला मोहना , लुटता मेरा चैन
मेरे दिल में बसे जो , नहीं दिखे पर नैन
बैरिन मुरली भई है , ठगे हमें जो रोज
पड़ती कानों ध्वनि जो , करुँ चोर की खो
रचते कान्ह रास जब , दर्प काम का तोड़
महारास की निशा में , रहा ब्रह्म का जोड़
प्रेम वासना रहित हो , होता नाही भोग
ऐसी अनुपम प्रीत है , रहता जिसमें जोग
माता
माता चरणों बसे गंग , माँ के आंचल धाम ।
बचपन उसकी छांव में , बीत रहा हर शाम ।।
गणपति हमको सीख दे, रहे मात की आस
काम बने तब कृपा से, मिले नहीं जग हास