दोहा ग़ज़ल (बनते नहीं अदीब)
बस हाथों में ले कलम, बनते नहीं अदीब।
रूप रंग ही देखकर,समझो नहीं नजीब।।
दिल से भी रिश्ते जुड़े, होते हैं मजबूत।
रिश्ते केवल खून के, होते नहीं करीब।।
सबकी हो सकती नहीं, सब इच्छायें पूर्ण।
जो भी हमको मिल गया, मानो उसे नसीब।।
करती रहती ज़िन्दगी,समय समय पर वार।
भर देता पर जख्म हर,होता वक़्त तबीब।।
चले सफलता की डगर, हुये दोस्त भी दूर।
ईर्ष्या की इक रेख ने, उनको किया रकीब।।
ये वैभव पैसा महल, जीते जी की शान।
पर मरने के बाद तो, कौन अमीर गरीब।।
होते जग में ‘अर्चना’,यूँ तो दोस्त हज़ार।
जिनके गम अपने लगें, होते वही हबीब।।
30-08-2020
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद