दोनों तो उलझे थे, शब्द व स्नेह के बीच…
शब्द,
कहां गई हूं मैं,
कहीं तो नहीं,
यहीं हूं,
आस-पास तुम्हारे,
हां मित्र-अमित्र में,
खींच गई हैं लकीरें,
यह सच है,
लेकिन यह भी सच है,
मैं आज भी,
मोबाइल के स्क्रीन पर,
सबसे पहले,
तुम्हें खोजती हूं।
एक क्लिक से,
तो दूर हूं तुमसे,
लेकिन यह सत्य है,
अब और करीब हूं तेरे।
तुमसे भी,
बहुत कुछ सीखा है मैनें,
शब्द-शब्द को सींचा है मैने,
मित्र-अमित्र में,
एक क्लिक से जो है दूरी,
सच कहूं तो,
जब क्लिक करना था,
तो कई बार सोचा,
चाहती नहीं थी,
लेकिन हो गया क्लिक,
दोष मेरा नहीं था,
पर क्या करूं,
इस टच स्क्रीन को,
क्या कहूं।
अब जब क्लिक हो गया,
तो कैसे जोड़ती तुमको,
दोनों तो उलझे थे,
शब्द व स्नेह के बीच,
सोची उसी क्षण,
जोड़ लूं तुमको,
फिर सोचा,
स्वीकार ना करोगे,
तो क्या करूंगी,
इसलिए चाह को भी,
मार दी मैनें।
अच्छा चलो,
एक काम करो,
मैने मित्र को अमित्र किया,
तुम अमित्र को मित्र कर दो,
मैं स्वीकार लूंगी दोस्ती,
तुम मुझे स्नेहा कर दो।
(‘स्नेहा’ नाम है)