*देह का दबाव*
Dr Arun Kumar shastri
देह का दबाव
देह के दबाव से अब मेरा दिल निकल रहा है
इंद्रियों के स्वाद की पकड़ से ये दूर हो रहा है
जब से हुआ हूँ वाकिफ मालिक तेरे अलम से
रोशन है रूह मेरी मालिक तेरे अदब से
जिव्हा पुकारती है हर वक़्त नाम तेरा
सिज़दा ये बार बार तुझे बा हुकुम कर रहा है
आंखों से नूर बरसे दर्शन किए हैं जब से
इंसानियत का रह – रह कर पर्चा ये भर रहा है।
देह के दबाव से अब मेरा दिल निकल रहा है
इंद्रियों के स्वाद की पकड़ से ये दूर हो रहा है
चाहत बनूं किसी की तरह -तरह के सपने विचार
कुलबुलाते रह -रह के राह से मुझे ये भटकाते।
पुनि – पुनि हृदय को साधता फिर मार्ग पर डालता।
कर एकाग्र बुद्धि को सन्मार्ग पर करता प्रदत्त।
ये चोला दिया किस काम को किस काम पर चला ।
कर विधि विधान का ध्यान मैं उस की गति सुधारता।
नर हूं नर के कर्तव्य को कर स्मरण प्रभु मार्ग स्थित कर रहा।
अंधकार को त्याग मैं सतत प्रकाश की ओर हूं बढ़ रहा।
कर सुनिश्चित ध्येय मन को नियंत्रित कर रहा।
आत्मा से अपनी इसी बात पर बार – बार लड़ रहा।