देवियाँ
यहाँ देवियाँ पूजी जाती हैं,
प्रभु के नाम से पहले
उनकी अर्द्धांगिनियाँ
पुकारी जाती हैं,
मिलती हैं यहाँ
सरस्वती कई और लक्ष्मी कई
उपले पाथते हुए,
चूल्हे में जीवन झोंकते हुए,
श्वेत वस्त्र धारण किए
जीवन के आनंद त्यागकर
विधवा धर्म निभाते हुए,
कुमकुम भरे क़दमों से
धन लेकर आते हुए,
तंज़ के नुकीले बाण सहते हुए।
नहीं जा पाती वो
विद्या के मंदिर कभी
ना ही बोल पाती हैं
मुंह खोलकर कभी।
दिख जाती हैं यहाँ
कभी दुर्गा तो कभी चंडी भी,
कभी मांस के लोथड़े सी
कहीं पड़ी हुई,
कभी नुची तो कभी जली हुई,
अपने लोथड़ों को समेटती हुई
तो कहीं दम तोड़ती हुई।
और कभी कभी तो
नुचने के बाद भी
संहार का प्रयास करती हुई,
न्याय की ख़ातिर
क़ानूनी दांव-पेंच में उलझी हुईं।
कईंयों के भीतर होती है
छटपटाहट, कुलबुलाहट,
देवी के रूप से बाहर आने की,
ज़िंदगी अपने शर्तों पर जीने की।
और मान लेती हैं कईं तो
इसे हीं स्त्रियों की नियति,
और अपने साथ साथ
बांध देती हैं वे
और देवियों की सीमाएं भी,
और भक्त समाज
रहता है सदैव तत्पर
उन्हें सहयोग देने के लिए,
चारदीवारी से बने मंदिर में
उन्हें देवी बनाकर
क़ैद करने के लिए।।
-©®Shikha