देवव्रत से भीष्म पितामह तक। शेष भाग के अंश
द्रौपदी को जीत स्वयंम्बर में,
पांडव पहुंचे गए अपनी कुटिया में। धीरे-धीरे सबको पता चल गया,
पांडव जिंदा हैं, हैं अभी भी इस दुनियां में! भीष्म के मन में खुशीयों का संचार हुआ,
अब उन्हें घर वापस लाने पर विचार हुआ!
पांडव वापस घर बुलाए गए ,
किन्तु एक समस्या जो बन आई,
दुर्योधन के युवराज बन जाने से,
और अब,
युधिष्ठिर के आ जाने से,
दो दो युवराज हो नहीं सकते थे,
दुर्योधन हटने को तत्पर ना थे,
और शकुनि व धृतराष्ट्र को भी,
उसे हटाने पर एतराज़ भारी था,
तब भीष्म पितामह ने यह सुझाव दिया था,
हस्तिनापुर के विभाजन करवाने का,
युद्धिष्ठर, और दुरुयोधन को पृथक करने का,
हस्तिनापुर के एक भूभाग को
दो हिस्सों में बांटना पड़ गया,
खांडव प्रस्थ उजाड़ पड़ा था।
हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र स्वयम खड़ा था,
युधिष्ठिर को खांडव प्रस्थ का भाग दिया।
खांडव प्रस्थ को पांडवों ने संवारा,
इन्द्र प्रस्थ के नाम से गया पुकारा,
पांडवों ने अपनी यश कीर्ति को बढ़ाया,
और राजसूर्य यज्ञ किया गया,
इन्द्र प्रस्थ को देख देख कर,
दुर्योधन, को आश्चर्य हुआ,
अब उसे इन्द्र प्रस्थ का मोह जगा,
इधर उधर घूम आया ,
इन्द्र प्रस्थ के आलोकन से भरमाया,
भवन की भव्यता को देख रहा था,
जल जहां दिखता था,
वहां जल नहीं था, और
जहां पर जल भरा हुआ था,
वो वहीं के लिए चल पड़ा था,
दासी ने चेताया,
सावधान! कुमार,
आगे जल है,
लेकिन उसे यह लगा,
यह उसके साथ छल है,
तब तक वह घट गया, जिससे उसे चेताया था,
और दुर्योधन जल भरे तालाब में गिर आया था।
उधर ऊपर से पांचाली ने इसे देख लिया,
परिहास करते हुए,अप्रिय शब्दों का प्रयोग किया।
अंधे का अंधा पुत्र है कह दिया,
अब दुर्योधन को इस घटनाक्रम ने,
बहुत ज्यादा विचलित किया।
अपने अपमान से आहत होकर,
उसने तब बदला लेने का प्रण किया।
अपनी व्यथा को उसने,
मित्र कर्ण,मामा शकुनि से कह सुनाया,
मामा शकुनि ने ढांढस बंधाया,
ध्यूत क़ीडा की चाल चल गया,
पांडवों को इसमें आमंत्रित किया,
पांडवों को इसका आभास ना हुआ।
उन्होंने इसे सामान्य भाव से,
इस प्रस्ताव को स्वीकार किया।
और निर्धारित समय पर ,
हस्तिनापुर को कूच किया।
हस्तिनापुर नरेश ने ध्यूत क़ीडा का,
प्रबन्ध किया,
दुर्योधन ने अपने पासे डालने को,
अपने प्रतिनिधि मामा शकुनि को कहा।
यह सब देख सुनकर भी,
पांडवों को छल होने का बोध नहीं हुआ।
शकुनि ने पासे डालने का क्रम शुरू किया,
और युधिष्ठिर को दांव लगाने को,आंमत्रित किया।
अब दांव पर दांव लगते रहे,
और युधिष्ठिर हर बार हारते गये।
सारी धन संपदा को जब वह हार गए,
तो फिर अपने भाईयों को दांव पर लगा गये, फिर अपने को भी हार गए।
एक बार भी तब उन्होंने ,
इस पर क्यों नही विचार किया,
और हार हार कर भी,
खेलने से क्यो नही इंकार किया।
दुर्योधन के उकसाने पर ,
द्रौपदी को भी अब दांव पर लगा दिया,
और हार कर स्वयं को शर्मसार किया,
दुर्योधन ने द्रौपदी को,
सभा मध्य लाने को कहा,
लेकिन इस अमर्यादित कार्य का,
ना किसी ने विरोध किया।
द्रौपदी को घसीट कर दुशासन ले आया,
लाकर भरी सभा में अपमानित किया गया,
वह दया की भीख मांगती रही,
यहां बड़े बड़े सुरमाओ की बोलती बंद हुई,
जैसे सांप सुंघ गया हो सबको,
इधर दुर्योधन ने अपना विवेक खो,
वस्त्र हरण करने को कहा,
और दुष्ट दुशासन ने भी,वहीं किया।
दुशासन वस्त्र खींचता जा रहा था,
और कोई मदद को आगे नहीं आ रहा था।
जिस सभा में कुल श्रेष्ठ भीष्म रहे हों,
कुल गुरु कृपा चार्य उपस्थित हों,
द्रौणाचार्य मौजूद रहे हों,
वहीं पर एक नारी का अपमान होता रहा!
सब ओर से हतास निराश,
उसने श्रीकृष्णा का ध्यान धरा,
हे कृष्ण बचा लो का पुकार किया,
श्रीकृष्ण ने उन्हें उबार लिया,
अपने भक्त का उद्धार किया,
वह हे कृष्ण हे केशव,हे माधव,
का जाप करती रही,
और श्रीकृष्ण ने भी अपने भक्त की लाज रख दी।
लीलाधर ने लीला करके दिखाया,
दुशासन खींच रहा था जिस साड़ी को,
उस साड़ी में स्वयंम को समाया ,
दुर्योधन और दुशासन चाहकर भी कुछ नहीं कर पाए ।
धृतराष्ट्र को तब भी लाज ना आई ,
उसने पांडवों को बारह वर्ष के बनवास,
और एक वर्ष के अज्ञात वास की शर्तें लगाई,
पांडवों ने इसे स्वीकार कर लिया,
इस तरह उन्होंने बनवास और अज्ञात वास पुरा किया ।
लेकिन अज्ञात वास पर दुर्योधन को संशय हो गया,
और वह पांडवों को पुनः इसे दोहराने को कहने लगा।
अब पांडवों को यह पसंद नहीं आया,
और उन्होंने यह संदेश भिजवाया।
या तो हमें इन्द्र प्रस्थ लौटा दो,
या फिर युद्ध को तैयार रहो।
भीष्म पितामह ने जिस हस्तिनापुर को,
अपने प्राणों से भी ज्यादा चाहा था,
उसी हस्तिनापुर में युध का साया आया था।
युद्ध हुआ भी, और वीरों ने अपनी जान भी दी,
लेकिन धृतराष्ट्र को कुछ नहीं मिला,
और जिस राज्य का राजा हुआ करता था,
अब वहीं पर आश्रित होकर रह गया था, पराधीन होकर भी लाज ना आई,
यह बात भी विदुर ने आकर समझाई।
तब उसने संन्यास का वरण किया,
जिन्हें वह पांच गांवों को नहीं दे पाया था,
अब उन्हीं की दया पर निर्भर होकर रह गया था।
लेकिन देवव्रत को क्या कुछ कुछ मिला,
इतने बड़े साम्राज्य का वारिस,
निढाल होकर पड़ा हुआ,
हस्तिनापुर की जमीन पर।
जमीन भी नसीब ना थी,
बाणों की सया सजी हुई थी,
और देख रहा था, अपनी आंखों से,
अपने हर अजीज़ का मरण ।
अंत तो धर्म संगत ही हुआ ,
पांडवों के पक्ष में युद्ध रहा ,
इस प्रकार महाभारत के युद्ध का अंत हुआ,
देवव्रत के द्वारा ली गई प्रतिज्ञा,
भीष्म पितामह की परिक्षा में बदल गया,
और देवव्रत के द्वारा लिए गए,
उन निर्णयों पर,
जो परिस्थिति के अनुरूप,
नहीं ढाल पाए हैं अपने को,
और अपने ही निर्णय में उलझ गए ,
वह यह झेलने को अभिषप्त रहे,
देवव्रत ने जो प्रण लिया था,
देवव्रत के रूप में,
उन्हें ही ढाल दिया भीष्म पितामह ने अपने प्रण में ,
उन्होंने वही सहा था,
जिससे वह बचकर निकलना चाहते थे,
लेकिन निकल नहीं पाए थे,
बिना विवेक से लिए गए निर्णय पर,
शायद कभी वह पछताए भी थे !!