देवता कुल के राक्षस
देवता कुल के राक्षस
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परिभाषा नितांत आवश्यक है
तय करने से पूर्व ।
निरंतन जो बना रहता है
क्या? वह देवता।
देवताओं के कुल में जो
जाता है ‘मर’ वही राक्षस?
मृत्यु और ‘मर’ जाने में
आत्मा चिरंतन तो है किन्तु,
हास और क्रंदन का अंतर है।
निरंकुश आचरण निस्तेज होता है।
भ्रष्ट आचरण निरंकुश और आत्म मुग्ध।
संहिताओं से जकड़ा आचरण
देवताओं द्वारा देवताओं को प्रदत्त वरदान है।
देवताओं के सामर्थ्य का बलिदान
गढ़ता और ढालता है देवता।
हे मूर्धन्य मानव,जा उसे दे बता।
देवताओं की गिनती खत्म होने से पूर्व
राक्षस में परिवर्तित हो जाते हैं राक्षस।
राक्षस की गिनती शुरू होने के पश्चात
कोई देवता नहीं रहता।
हर ब्रह्मा हो जाते हैं ब्रह्मराक्षस।
उसे हर यज्ञ का भाग और भोग चाहिए।
उसे हर संभोग का संयोग चाहिए।
नीति जब नहीं बचती
नैतिकता जब नहीं बचती
आत्मसंस्कार जब नहीं बचता
गुरुजनों के दिए सीख और संस्कार नहीं बचते
कैसे बच पाएंगे देवता!
आदमी कैसे बन जाएगा देवता?
राक्षस की परिभाषा यहीं खत्म नहीं होती।
निर्लज्ज होना राक्षस होना नहीं है।
राक्षस होकर नहीं होना निर्लज्ज
देवता होना नहीं है।
दोनों सीमांत में हैं।
उजाले की संरचना किसी के जलकर भस्म होने से
शुरू होती है।
आवश्यक नहीं कि वह देवता नहीं हो।
या देवता ही हो।
तम से प्रकाश की ओर जाने की कामना
राक्षस नहीं करते।
प्रकाश की प्रशंसा सिर्फ देवता ही
आए हैं करते।
युग बदल जाते हैं
देवता कुल के राक्षस नहीं बदलते।
कल्प बदल जाते हैं
राक्षस कुल में देवता नहीं जनमते।
मनुष्य को मनुष्य से बड़ी उम्मीदें हैं
देवता कुल के राक्षस को
बना देगा वह आदमी।
देवता की भांति
जीना सीखा देगा
आदमी को आदमी।
—————————–15/4/24–————————