देना और पाना
देना और पाना
अपनी रौशनी और तपिश
को देता ही जाता है सूरज
बिना बदले की कुछ आस के
ना पीछे रहता है चंदा
बांटने को अपनी शीतलता
लंबा सफर तय करती नदी
कभी नही थकती
क्योकि उसे भी देने का कर्म
पूरा करना है प्रकृति की
स्थिरता बनाए रखने के लिए
पेड नही पूछते फल को
तोडने वाले की जरूरत
क्योंकि उसे सिर्फ फल देने
के काम से है मतलब
फूल के रंग और गंध का प्रसार
है समान रूप से सब के लिए
चहुंओर बिखरी हवा
लिए है पूरा फैलाव
हर जीव को जीवन देने
सृष्टि की इस अद्भुत रचना मे
सब है भागीदार अपने देने के भाव से
छोड़कर बस इंसा को जो
मौजूद है इस पूरे देने के चक्र मे
सिर्फ और सिर्फ पाने की फितरत लिए
जिसके खातिर चीर डाला है उसने
धरती से लेकर आसमान का सीना
और मुश्किल कर दिया हर जीव का
इस धरती पर सुख से जीना।
संदीप पांडे”शिष्य” अजमेर