फिर देखो ! उठने लगी नफ़रत बाली हूक ( सामयिक ग़ज़ल )
फिर देखो ! उठने लगी, नफ़रत बाली हूक ।
कुर्सी बाले कर रहे यहाँ चूक पर चूक ।।
उल्लू भी बेख़ौफ़ निकलते उजियारे में ।
ज़ुगराफ़ी का इल्म़ कराते कूएँ के मंडूक ।।
चाट रहे हैं तिलचट्टे भी तारीख़-ए-अल्फ़ाज़ ।
किसमें दम है,जो जवाब़ दे इनको भी दोटूक ?
बिच्छू, साँप ,छछूँदर मिलकर एक हो गए ।
अजगर को हम सब मारेंगे इसमें न हो चूक ।।
नहीं फुदकती गौरैया भी दहश़त के आँगन में ।
दबी – दबी रहने लगी कोयल की भी कूक ।।
भुस में डाली आग , महाजन दूर खड़े हैं ।
मुख़ालफ़त होती ज़ूरी की लेकिन सब हैं मूक ।।
किसी तरह मिल जाए कुर्सी “ईश्वर” इनको ।
भले चले फिर बेग़ुनाह पर गुण्डों की बंदूक ।।
… ईश्वर दयाल गोस्वामी ।