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5 Apr 2018 · 1 min read

फिर देखो ! उठने लगी नफ़रत बाली हूक ( सामयिक ग़ज़ल )

फिर देखो ! उठने लगी, नफ़रत बाली हूक ।
कुर्सी बाले कर रहे यहाँ चूक पर चूक ।।

उल्लू भी बेख़ौफ़ निकलते उजियारे में ।
ज़ुगराफ़ी का इल्म़ कराते कूएँ के मंडूक ।।

चाट रहे हैं तिलचट्टे भी तारीख़-ए-अल्फ़ाज़ ।
किसमें दम है,जो जवाब़ दे इनको भी दोटूक ?

बिच्छू, साँप ,छछूँदर मिलकर एक हो गए ।
अजगर को हम सब मारेंगे इसमें न हो चूक ।।

नहीं फुदकती गौरैया भी दहश़त के आँगन में ।
दबी – दबी रहने लगी कोयल की भी कूक ।।

भुस में डाली आग , महाजन दूर खड़े हैं ।
मुख़ालफ़त होती ज़ूरी की लेकिन सब हैं मूक ।।

किसी तरह मिल जाए कुर्सी “ईश्वर” इनको ।
भले चले फिर बेग़ुनाह पर गुण्डों की बंदूक ।।

… ईश्वर दयाल गोस्वामी ।

6 Likes · 4 Comments · 545 Views
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