देखा है कभी?
देखा है कभी?
दूर क्षितिज में उतरती डूबते रवि की रश्मियों को,
लगता है जैसे जिंदगी उदास हो रही हो
कोई कहीं अश्रुजल से दामन भिगो रही हो।
लगता है जैसे थके कदम ठहर गए हों,
धुंधली आँखों के पहरे फैल गए हों।
देखा है कभी?
शशि की रजत धारा में रजनी को नहाते हुए,
गगन में विरह की व्यथा में चातक को पर फैलाते हुए।
लगता है जैसे जिंदगी उजाड़ सी हो गई हो,
चैन की रैन कहीं दूर शून्य में खो गई हो।
देखा है कभी?
पूस की रात में अंबर को सिसककर रोते हुए,
ठिठुरते ठूठ पर शुष्क हिम को अपना वजूद खोते हुए।
लगता है जैसे विरह की वेदना बढ़ती जा रही हो,
और हिय की परतें मोम की मानिंद पिघलती जा रही हो।
देखा है कभी?
उष्ण ताप में किसी तपती बंजर होती जमीं को,
भाप बनकर उड़ती नभ से गिरती बूँद की नमी को।
लगता है जैसे कोई अगन तन को जला रही हो,
नीर की बूँदें भी बदन की तपन को बढा़ रही हो।
सोनू हंस