दुविधा… “उम्र की तलाशी”
शीर्षक : दुविधा…उम्र की तलाशी
बढ़ रही है उम्र हमारी या कम हो रही जिन्दगी, दुविधा ये अब होने लगी,
दिलो-दिमाग में एक कशमकश सी आजकल यही हमारे अब रहने लगी।
दिमाग ने ली जब तलाशी उम्र की, संजोयी स्मृतियों को टटोलने हम लगे,
जीवन के सुखद अहसासों में, उमंगों के बीते दौर दिल में खौलने लगे।
मधुर स्मृतियों से मिली दिल को चाह नयी. जीने की बीती उम्र उड़ेलने लगे,
यादों के उजाले फिर मन के उन आवेग- उद्वेगों को बाहर धकेलने लगे।
बैचेन मन को देते रहे ठहराव, आँखों में भविष्य के नये ख्वाब संजोने लगे,
तलाशी उम्र की थी और दिलो-दिमाग में बंद संदूकों के राज खुलने लगे।
समझा ये हमनें बढ़ रही है उम्र बेश़क, अनुभवों के अध्याय नये जुड़ने लगे,
जीवन किताब, वरक दर वरक पलटते हम बढ़ती उम्र संग, उसे पढ़ने लगे।
© ® उषा शर्मा
जामनगर (गुजरात)