दुर्गावती:अमर्त्य विरांगना
दुर्गावती:अमर्त्य विरांगना!
आज एक बलिदानी गाथा तुम्हें सुनाने आया हूंँ।
इस भारत की नींव कहां है तुम्हें दिखाने आया हूंँ!
भूल गए बलिदानी पूर्वज की अमर्त्य सी गाथाएंँ।
वही गुमा स्वर्णिम अक्षर का गीत सुनाने आया हूंँ।
युद्धक दृश्य रमन हर्षण की भी तो नहीं कहानी है।
विध्वंशों के बीच मय्यसर भला किसे कब पानी है?
जिसके रग में बहे वीरता उसकी ही प्रभुताई है।
समर भूमि ने अमर प्रतिष्ठा बलिदानों से पाई है।
अखंड सूर्य के ज्वाल को सुन लो जुगनू ने पुचकारा तब।
कृतिवर्मन को समर भूमि में दुश्मन ने ललकारा जब।
युद्धभूमि में राजपूत आखिर बोलो कब अड़े नहीं।
दुश्मन ने ललकारा तो आखिर बोलो कब लड़े नहीं।
युद्धभूमि से विजय वीरगति दो ही अर्थ निकलते हैं।
पृष्ठभाग पर वार करे तो विजयी व्यर्थ निकलते हैं।
घायल होकर भी सिंह कभी क्या गर्जन करना भूला है।
जीवन भगवा वस्त्र है जिसका मृत्यु उसका झूला है।
शेरशाह की सेना सम्मुख कृतिराज का रण कौशल।
कृतीराज थे स्वयं सूर्य , था शेरशाह जैसे बादल।
छल छद्मों का वार सहे फिर हुए कृति तब घायल।
और छलावा का बादल था अतिक्रमण को कायल।
आंँखों में था दृश्य भयानक कंठों में भी क्रंदन था ।
भगवा सेना के मन में मानो दुर्गा का अभिनंदन था।
सबने सुनी कहानी थी चौदह हज़ार पद्मिनियों की।
जौहर ज्वाला से उठी चीख जो थी भूषण मणियों की।
उन चीखों को पुनः सुनें ऐसा उन्माद नहीं होगा
याकि राजपूती अस्मत फिर से बर्बाद नहीं होगा।
शक्ति की देवी दुर्गा हैं सबने जिनको पूजा है।
पहला रूप सती उन्हीं का रूप कालिका दूजा है।
समर भूमि में आज स्वयं ही समर भावनी आएगी।
और सैकड़ों धूर्त निशाचर को माटी चटवाएगी।
आज पुनः भैरव का प्यासा जीभ रक्त का स्वाद चखेगा।
आज पुनः रणभूमि में रण–चंडी का वार दिखेगा।
जिनकी नयन सितारा दिखती लाख सूर्य की आभाऐंँ।
कृतिवर्मन की इकलौती वो बिटिया थी या अंगारेंँ ?
इन उपमाओं में मत डुबो अभी कहानी बाकी है।
शेरशाह का सैन्य झुंड हो पानी–पानी बाकी है।
युद्ध भूमि में कूद गई जब दुर्गावती की सेनाएं।
किसकी मजाल थी उनके सम्मुख तलवारें लहराएं।
अपनी वाणों की वर्षा से वो रण में उत्पात मचाई थी।
पल भर में तो शेरशाह को यूं ही औकात दिखाई थी।
एक पहर होते होते युद्धक परिणाम बदल आया।
दूजा पहर शुरू होते ही शेरशाह लड़ने आया।
तिजा पहर शुरू होता गर शेरशाह जो टिक पाता।
चौथे पहर में भीख मांगने शायद घुटनों पर आता।
किंतु दुर्गावती ने खाई सौगंध देश की माटी का।
उसको कैसे जिंदा छोड़ें जो दुश्मन हो परिपाटी का।
एक पहर में मार गिराए इससे क्या बेहतर हो?
निर्मल मन की सरिता मानों कुछ पल को पत्थर हो।
रण कौशल को नव परिभाषा देना भी बहुत जरूरी था
तो सोए शक्ति चैतन्य को पुनः जगाने आया हुंँ।
नाम के जैसे जिसने पाई शक्ति युद्ध परीक्षा की।
दुर्गा, दुर्गावती रूप में क्रुद्ध दिखाने आया हूंँ।
रण भूमि में विजय प्राप्त कर रक्तों की प्रभुताई ने।
जीता शहशाह सूरी को , नारी की अगुवाई ने।
दुर्गावती की युद्ध कला और सुसगंत कूटनीति।
रण बांकुर के लिए बनी मानो कोई हो रम्य गीति।
रण भूमि की यह गाथा भगवाधारी की इच्छा थी।
बीती हुई कई सदियों से मानो कोई प्रतीक्षा थी।
गोंडवाने के नरेश ने प्रणय का प्रस्ताव दिया।
जाति अलग थी किंतु सबने मिलकर यह स्वीकार किया।
कालिंजर की राज दुलारी गोंडवाने की ताज हुई।
दमन चक्र से निपटी तो भगवा धारी की नाज हुई।
उसी समय अकबर ने जाना देवी की सुंदरता को।
युद्धभूमि में डटकर लड़ना और रौद्र निर्भीकता को।
अकबर मुगल वंश का रौनक भारत का अंँधियारा था।
उसने खिलते कई कुसुम को हंस कर यहां उजाड़ा था।
वो अकबर धर स्त्री वेश मीना बजार में जाता था।
और वहां हिंदू नारी को छल से कैद कराता था।
वो अकबर जो हरम बनाकर स्वयं हरामी बनता था।
फिर प्रबुद्ध भारत की लज्जा अक्सर छल से हरता था।
देखा समय था घात लगाया गोंडवाना के प्राचीरों पर।
लाखों की सेनाएं भेजी कुछ सहस्त्र सेनाओं पर।
रणभूमि में बड़ी कुशल वो दुर्गावती भवानी थी।
स्वयं कालिके रूम में लगती मानो अमर निशानी थी।
किंतु मिट्टी का सौदागर उनके साथ नहीं आया।
पैर चाटकर अकबर का जिसको होश नहीं आया।
किन्तु रण में विजय वीरगति दो ही पहलू होते हैं।
कायर ही रण भू में जाकर अश्क गिराकर रोते हैं।
अकबर की मंशा तय थी तो देवी को था कब संशय?
युद्धभूमि में वीरगति है राष्ट्र अस्मिता से परिचय।
पहला तीर लगा देवी के दाईं ओर भुजाओं में।
उसके खींच कर फेंकी फिर से कांपी हुई दिशाओं में।
द्वितीय तीर नयन को भेदा फिर भी साहस कमी नहीं।
उसे खींचकर फेंकी किंतु नोंक नेत्र में जमी रहीं।
टपक रहा था रक्त नेत्र से देवी ने अट्टहास किया।
पीड़ाओं को भूल गईं फिर से खुद पर विश्वास किया।
अकबर के सेनापति को देवी वाणों से भेद चुकी।
पर्वत के सीना को मानों नाखूनों से छेद चुकी।
युद्धभूमि में वीरगति के पथ प्रशस्त होने को।
समय नहीं था मृत्यु दूत को इक पल भी रोने को।
देवी ने आदेश दिया गोंडवाने के सेनापति को।
मेरा शीश उतारो तुम ही पाने अब आत्म वीरगति को।
सेनापति ने बोला ऐसा मैं कैसे कर सकता हूंँ?
मैं तो केवल तेरे चरणों में आकर के मर सकता हूंँ!
सेनापति के ना कहने पर देवी ने कृपाण निकाली।
और स्वयं को अपने हाथों मृत्यू के आंंचल में डाली।
रण कौशल को नव परिभाषा देना भी बहुत जरूरी था।
तो सोए शक्ति चैतन्य को पुनः जगाने आया हुंँ।
नाम के जैसे जिसने पाई शक्ति युद्ध परीक्षा की।
दुर्गा, दुर्गावती रूप में क्रुद्ध दिखाने आया हूंँ।
©®कवि दीपक झा “रुद्रा”
मौलिक स्वरचित पूर्ण अधिकार सुरक्षित।
24जून 2022