दुकान रिश्तों की (मुशायरा)
तमन्ना थी उसे बेसुमार दौलत कमाने की,
सहज ही पथ चुन लिया
दुकान रिश्तों की लगाने की!!
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हर रिश्ते का मोलदार कोई और है,
बेशक विक्रेता हैं हम
र दलाल कोई और है।।
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साहब ; आप जीते और हम हारे,
चलिए इसी बहाने एक अटूट रिश्ता हीं बना लें।।
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ये रिश्ते भी अजीब हैं, हमें व्यपार को उकसाते है,
कभी खुद खुद के लिए बिकते, तो कभी हमें बेच आते हैं।
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क्या खूब परख है साहब, हर रिश्तों के मोल तोल की,
किन्तु याद रहे
कुछ रिश्ते बेच और, खरीदे नहीं जाते।।
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पहले लगाते दुकान हो इन रिश्तों की बजार में,
जो बेच ना सके, कहते हो प्यार नहीं है,
जो बीक गया; फिर, तूं मेरा यार नहीं है।।
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नजरों में उनके खटके ऐसे, रिश्तेदार बना बैठे,
आये थे खरीदने अदद एक दुल्हा, मेरा मोल लगा बैठे।।
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©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
प.चम्पारण, बिहार