दीप और बाती
लौ
उसकी
यूँ देखी इठलाती
तो पूछा उठा दीप
री बाती
तू क्यूँ इतना इतराती
श्रयण तो दिया है मैंने ही
तुझे अपने अंतस में
वरना
तेरा क्या मोल
वर्तिका कुछ झूमी
किया नर्तन कटि बलखाई
तनिक विहंसि और
जोर से जगमगाई
बोली
रे दीपक सुन
यह विस्तीर्ण शुभ्र उजास
है देख रहा
तू चाहे तेल में जाए डूब
या सारा तेल
हो जाए तुझमें समर्पित
किन्तु
बिन मेरे साथ के
क्या तुम में है इतना दम
जो रोशन कर जाए घर को
मैं
करती हूँ त्याग
जलकर
देती हूँ समर्पण मिटकर
तभी
हो पाता विनष्ट अंधकार
तू भी छोड़ अंह
रह खुशी खुशी मेरे संग
कर प्रदीप्त
प्रकाश का संसार।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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