दीदी
तुम्हारे बारे में कई बार सोचती हूं,
तुम मेरे जीवन में क्या हो?
मेरी बहन,मेरी सखा, मेरी दिगदर्शिका
या मेरे आंसुओं की भाषांतरकार,
बीते लम्हों का वो अनजाना भय,
वो दर्द ,जो किसी व्याख्या,
किसी अनुमान, किसी भाषा से परे है,
वो तुम इतनी आसानी से कैसे संभाल लेती हो?
बचपन के जिन घरौंदों को
अपने घरौंदों में तब्दील करने में
मैंने और तुमने इतने जो जतन किए हैं
उस सफर की गवाह रही मेरे अंदर की स्त्री को
केवल तुम ही जान सकी हो.
बस इतना ही चाहती हूं कि जब कभी
फिर से जीवन मिले तो
वही सखियां, वही तुम और वही बचपन हो
हां, मगर अपने हिस्से में खुशियां जरूर हों.