दिवाली
लोग खुशियाँ मना रहे हैं। मंगल गीत गा रहे हैं। शायद वे कोई उत्सव मना रहे हैं। खैर छोडो़ मुझे क्या! मुझे तो अपनी तलाश पूरी करनी है। यह सोचता हुआ वह अनदेखे रास्ते पर चला जा रहा था। उसका सोचना जारी था।
मैं तो पथिक हूँ। मुसाफिर हूँ। अन्वेषी हूँ। पर किसका? अरे हाँ! मैं तो दिवाली खोज रहा था। अरे भाई, सुनो। मेरी बात सुनो। मैं दिवाली ढूँढ़ रहा हूँ। मुझे दिवाली चाहिए। मुझे दिवाली कहाँ मिलेगी? परंतु ये क्या? ये जवाब क्यों नहीं देता? अरे, अरे सुनो तो। ये तो चला गया। पर मुझे तो दिवाली को ढूँढ़ना ही है और मैं अवश्य ढूँढ़ लूँगा। इस पथिक से पूछता हूँ। इनकी आँखों से नेह टपक रहा है। अवश्य ही ये मेरे सवाल का संयत उत्तर देंगे।
अन्वेषी- अरे भाई! मुझे दिवाली चाहिए। ये कहाँ मिलेगी?
पथिक- पागल हो क्या! दिवाली भी कोई वस्तु है जो तुम्हें चाहिए। और आज दिवाली ही तो है, तुम्हें और कौन सी दिवाली चाहिए।
अन्वेषी ने तुरंत पूछा- प्रेम की, सौहार्द की, स्नेह की, परमार्थ की दिवाली चाहिए, मिलेगी क्या? भाई तुमने यह दिवाली देखी क्या?
पथिक- लगता है, मेरा पाला आज पागल से पड़ गया है। चलो छोडो़ मेरा रास्ता! मेरा समय बरबाद मत करो। मुझे जाने दो। पता नहीँ, कैसे-कैसे पागल हैं दुनिया में।
अरे, अरे सुनो तो। लो ये भी चला गया। अब मुझे दिवाली का पता कौन बताएगा? लेकिन मुझे तो दिवाली चाहिए। कोई-न-कोई तो बताएगा ही। यहाँ एक पंथी और हैँ। इनसे पूछता हूँ।
अन्वेषी- अरे भाई! रुको। मुझे दिवाली चाहिए। मिलेगी क्या? पंथी मुस्कराया- कौन-सी दिवाली चाहिए?
अन्वेषी फिर धाराप्रवाह पूछता चला गया- जिस दिवाली पर लोग जात-पाँत को छोड़कर स्नेह के बंधन में बँध जाते हैं, मुझे वो दिवाली चाहिए। जिस दिवाली पर लोग खुद में और खाद्य पदार्थों में मिलावट न करें, मुझे वो दिवाली चाहिए। जिस दिवाली में भाईचारे की भावना निहित हो मुझे वो दिवाली चाहिए। जिस दिवाली में मनुष्य की मनुष्यता दृष्टिगत हो, मुझे वो दिवाली चाहिए। जो दिवाली राग-द्वेष, कुचालें, भ्रष्टाचार, उत्कोच से मुक्त हो, मुझे वो दिवाली चाहिए। ऐसी दिवाली मिलेगी क्या। पंथी, बताओ ऐसी दिवाली मुझे कहाँ मिलेगी?
पंथी ने अपनी मुस्कराहट को बढा़ते हुए कहा- मैंने युग बिता दिए ऐसी दिवाली मुझे नहीँ मिली तुम्हें कैसे मिल जाएगी?
अब आश्चर्य में अन्वेषी था। अन्वेषी ने पंथी से पूछा- तुम कौन हो?
पंथी- मैं, मैं कौन हूँ? मैं विश्व गुरु, धर्म गुरु, विज्ञों में विशारद भारत हूँ। मैं मनुष्यों के उत्सवों में युगों से इस दिवाली को ढूँढ़ रहा हूँ। मैं रामायण काल से महाभारत काल तक, चंद्रगुप्त से अशोक तक और अशोक से अद्य तक ऐसी ही दिवाली की तलाश में हूँ। मुझे अब तक नहीँ मिली। तुम्हें कहाँ मिलेगी।
इतना कहकर पंथी अपने रास्ते चला गया और अन्वेषी उसे देखता रह गया।
✍सोनू हंस✍